आजकल आप किसी सेमिनार में जाएं या फिर किसी चौपाल का हिस्सा बनें...बातचीत के दौरान ज्यादातर वक्त इसी मंथन में कट जाता है कि आतंकवाद के मुद्दे पर भारत से पाकिस्तान छलावा कर रहा है...मुस्लिम समुदाय दहशतगर्दी को वाकई में बढ़ावा दे रहा है...इसके अलावा वक्त बचे तो लोग ये कहना नहीं भूलते हैं कि आज के दिन इंडियन मीडिया पूरी तरह से कमर्शियल हो चुकी है... क्रिकेट,फिल्म और राजनीति से इसका ध्यान नहीं हटता है...अगर रिस्पांस सही मिला तो ये भी कहना नहीं भूलते हैं कि कुछ पूंजीपतियों ने फायदे के लिए मीडिया की धार को कुंद कर दिया है, मीडिया में अब वो ताकत नहीं रही जो समाज में किसी क्रांति की शुरूआत कर सके....सोये हुए कौम को जगाने की कुवत मीडिया में अब कहां...।
अगर आपका किसी जानकार से पाला पड़ जाए...तो वो आपको इतिहास याद दिलाना नहीं भूलेंगे, और कहेंगे भारतेंदू हरिशचंद्र, मदन मोहन मालवीय, गोपाल कृष्ण गोखले, बहादुर शाह जफर, सर सैयद अहमद का वक्त गया,जब इन लोगों ने कलम के बल पर एक गुलाम देश को आजादी की और अग्रसर किया गया था....तब मीडिया लोगों की बात करती थी और आज सरकार की भाषा बोलती है, पूंजीपतियों के इशारे पर नाचती है मीडिया।
दरअसल ये सिविल सोसायटी और सामाजिक संस्थानों को चलाने वालों का दर्द और मन की भड़ास है, जो हमेशा किसी को कोसने के अलावा दूसरा कोई काम नहीं करते हैं...
हां, ये सच है कि मीडिया आज के दिन बदलाव के दौर गुजर रही है, अपनी कारगुजारियों के चलते निशाने पर है मीडिया, गलत नीतियों को लेकर मीडिया की सड़क से लेकर संसद तक चर्चा होती है... हकीकत ये है कि मीडिया कमर्शियल होने के बावजूद हर किसी की जिंदगी से जुड़ा है...आपकी रोजमर्रा की जिंदगी में मीडिया का दखल है, आपका हर कदम मीडिया के इशारे पर आगे बढ़ता है.. आपकी पसंद और नापंसद मीडिया के कहने पर बदलती है...मीडिया कभी आपको मायूस करती है तो कभी किसी को न्याय दिलाने में मददगार भी साबित होती है...अंधविश्वास को दूर भगा रहा है मीडिया, लोगों में अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने की हिम्मत देता है मीडिया... मानवाधिकारों की रक्ष करता है मीडिया,,, इस नजरिये से देखें तो मीडिया हमें हर मायने में प्रभावित करता है, यही वजह है कि मीडिया से उम्मीदें ज्यादा है...मीडिया को और अधिक प्रभावशाली बनाने के बारे में लोग सोचते हैं, जो कि अच्छी बात है... लेकिन मीडिया के सामने क्या क्या चुनौतियां हैं? बहुत कम लोगों को इसका अहसास है, बिना जाने आलोचना करना हमारी फितरत का एक हिस्सा है, इसलिए हम गाहे बगाहे मीडिया पर जुबानी तीर चलाते रहते हैं,
मानवीय और सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को मीडिया हमेशा प्रमुखता देती है..इन मुद्दो को मीडिया समय और जरूरत के हिसाब से आगे लाती है...एजेंडा सेट करती है और सरकार को नीतियां बनाने पर मजबूर करती हैं...इस तरह की खबरों का असर तीव्र होता है,इससे लोगों में विश्वास बढ़ाने में मदद मिलती है...आम आदमी को इंसाफ मिलता है...खबर का असर होने पर हौसला और आत्मविश्वास बढ़ता है...इस तरह की खबरों को नजर अंदाज करने की तोहमत लगाना बेबुनियाद है... अगर ऐसा होता तो देश के मानचित्र पर मराठवाड़ा, विदर्भ, बस्तर, कालाहांडी कैसे छा जाता?आज महंगाई देश में सबसे बड़ा मुददा बन गया है...महंगाई पर मीडिया की पैनी नजर है, सूचना अधिकार में जान डालना मीडिया की मेहरबानी है...नरेगा को जन-जन तक पहुंचाने और भ्रष्टाचार को सामने लाने में मीडिया की भूमिका अहम रही है..न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को सामने लाने के पीछे मीडिया है...बीएमडब्ल्यू कांड,जेसिका लाल हत्याकांड,उपहार कांड,इंजीनियर दुबे हत्याकांड, रूचिका केस, गुजरात दंगा केस, रक्षा घोटाला, पंडितों की पोल खोल, किसानों की आत्महत्या जैसी हजारों केस हैं जिसमें मीडिया ने अकेले ही अहम भूमिका अदा की है... अब मीडिया का फोकस आनर किलिंग और नक्सली हिंसा पर है... जरूर सरकार को सख्त कठम उठाने पर मजबूर करेगी... अब और इससे ज्यादा आप क्या उम्मीद कर सकते हैं?बाकी क्षे़त्रीय स्तर पर मीडिया बेहतर काम कर रही है, दीगर है कि हम उन्हें तवज्जौ नहीं देते है,
नेशनल मीडिया, रीजनल मीडिया के काम करने का अंदाज और सरोकार अलग अलग हैं, जिन खबरों और मुद्दों को लोकल मीडिया तरजीह देती है जरूरी नहीं कि नेशनल मीडिया भी उसे तरजीह दे, लेकिन खबरें क्षेत्र से ही आती हैं व्यापकता के आधार पर अहमियत दी जा सकती है इसलिए इस खाई को समझना होगा, बिजली की किल्लत, पानी की समस्या, मांगो को लेकर लोगों का प्रदर्शन, पुलिस की मनमानी और नाकामी चोरों का आतंक, राज्य सरकार के फैसले लोकल मीडिया की खबरें होती हैं,इससे जो छन कर आता है उन खबरों को नेशनल मीडिया प्रमुखता देती है,वहीं नक्सली गतिविधियों से जुड़ी खबरें हमेशा हर एक जगह सुर्खियां बटोरती है,जबकि आतंकवादी गतिविधियों की खबरें ज्यादातर नेशनल मीडिया को ही रास आती है,क्षेत्रीय स्तर पर प्रकाशित और प्रसारित खबरों का जबरदस्त असर होता है,प्रखंड स्तर से लेकर जिला स्तर और फिर राज्य स्तर तक खबरों पर कार्रवाई होती है,इसलिए इन खबरों को दूर तक ले जाने की जरूरत नहीं है,यही नीति कुछ सामाजिक कार्यकर्ताआं को रास नहीं आती है,जो सिर्फ बडे़ बड़े शहरों में बैठकर बातों की जुगाली करते है, दरअसल ऐसे लोगों को पता भी नहीं होता कि लोकल मीडिया क्या करती है, क्या दिखाती है,सच तो यह भी है कि इन्हें यह भी नहीं मालूम कि लोकल मीडिया भी देश में सक्रिय है और बेहद प्रभावशाली है,मीडिया की आलोचना करने के पीछे इसकी सिर्फ यही मंशा होती है कि लोग उनके कार्यों को देखे और इसके एवज में ज्यादा से ज्यादा फंडिंग हो,मीडिया को अपना रस्ता मालूम है समाज को बहका कर अपनी उल्लू सीधा करने वालों के कहने पर मीडिया काम नहीं कर सकती है....
यहां पर बताते चलें कि मीडिया हाउसों में लगी एक एक कुर्सियां हजारों रुपये की होती हैं, एक- एक सिस्टम की कीमत लाखों में होती हैं, बाकी रोजाने का बिजली बिल हजारों में होती है, हर एक स्टोरी के लिए हजारों रुपये का निवेश होता है, बांकी स्टाफ की सैलरी वगैरह भी कम नहीं होती है, ऐसे में कोई संस्था अपनी पूंजी को दांव पर लगाकर मानव सेवा भला कैसे करे? संस्था की वजूद को कायम रखने के लिए मध्यमार्ग तो अपनाना ही होगा,रोजी रोटी के लिए व्यवसायिक मजबूरियों को नजर अंदाज तो नहीं किया जा सकता है?इसलिए इस मसले पर व्यवसायीकरण का ठप्पा लगाकर कुछ कहना या आलोचना करना बेकार है...
आप हम में से बहुत लोगों को शिकायत रहती है कि मीडिया मन की बातें नहीं करती है,हकीकत है कि मीडिया सबके मन की बातें करती है, सबकी खबर लेती है, आपको जगाती है, सूचना देती है और प्रशिक्षित भी करती है, कभी-कभी हंसाती और गुदगुदाती भी है, लेकिन दुख की बात है कि मीडिया जहां आपके मन की बातें करती है वहां तक आप अपनी निगाह को दौराने में कतराते हैं,जानकर ताज्जुब होगा कि देश में संपादकीय टिप्पणी सिर्फ दो फीसदी लोग पढ़ते हैं,संपादकीय खबरों की खीर और अखबारों की जान होती है, ऐसे में बिना पढे़ मीडिया पर असंवेदनशील होने का आरोप मढ़ देना शायद जायज नहीं है, येलो जर्नलिज्म के लिए मशहूर है इंडियन एक्सप्रेस, दि हिन्दू, तहलका और आउटलूक पत्रिका, कितने लोग पढ़ते हैं, बाकी न्यूज चैनलों में एनडीटीवी, सीएनएन आईबीएन, न्यूज एक्स...क्या टीआरपी है इन चैनलों की?वहीं आजतक,समय और आईबीएन7, स्टार न्यूज सबसे ज्यादा मानवीय सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर खबरें दिखाती है,कितने लोग मनोरंजक कार्यक्रमों के अलावा खबरों पर आधारित प्रोग्राम देखते हैं, इस मसले पर आपने कभी सोचा है, मेहनत के मुताबिक अगर काम आम लोगों तक ना पहुंचे,खर्च के हिसाब से रिर्टन ना मिले तो संस्थान को तो अपनी नीति पर विचार करनी ही चाहिए...वैसे भी स्टार प्लस,कलर्स,इमेजिन जैसे मनोरंजन चैनल आजकल सामाजिक कुरूतियों पर आधारित सीरियल बना रही है जिसे लोग खूब पसंद कर रहे हैं...
आज क्या दशकों से लोग कहते हैं कि देश को वैकल्पिक मीडिया की जरूरत है,ताकि आम लोगों की समस्याओं आगे लाया जा सके, मानवीय सरोकारों से जुड़े मुददों पर राय कायम की जा सके... और लोगों को इंसाफ मिलने में आसानी हो... आज इस तरह की मीडियम की कमी नहीं है, एक ढूढेंगे तो हजार मिलेंगे...लेकिन आइडिया की किल्लत है और पढ़ने सुनने देखने वालों की कमी अवश्य है.. फेसबुक, आर्कुट, ट्विटर, मोबाइल पर मैसेज, ब्लाग, सामुदायिक रेडिया- अखबार, बैनर- पोस्टर- पम्पलेट, एफएम रेडियो इसकी मिसाल हैं,हम में से बहुत कम लोग टेक्नोलोजी का इस्तेमाल इस मायने में करते हैं, अगर करें तो इससे बढ़िया प्लेटफार्म शायद ही कोई दूसरा हो, इस मामले में जंगल में रह रहे विद्रोही गुट आगे हैं, जो पोस्टर और बैनर के सहारे ही दुनिया में दहशत कायम कर रहे हैं और अपनी बातों को दूसरों तक पहुंचा रहे हैं,वहीं खिलाड़ी और कलाकार भी सोशल नेटवर्किंग के सहारे प्रशंसकों तक मन की बात पहुंचा रहे हैं...
मीडिया की बाजीगरी आज के दिन चर्म पर है,कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वाकई ध्यान देने की जरूरत है,आज के दिन कमिश्नरी स्तर पर अखबारों का प्रकाशन हो रहा है जिला स्तर पर कैबल न्यूज चल रहे हैं, इन माध्यमों में लोग अपनी खबरों को पाकर शुरूआती दिनों में बेहद खुश होते हैं, जिसे मीडिया जगत बखूबी कैश करती है, इस प्रवृति से नुकसान यही होता है कि खबरें एक सीमित दायरे में सिमट कर रही जाती है, जिसे आगे जाना होता है उसकी आत्मा वहीं पर मार दी जाती है, लोग इस भाव को आने वाले दिनों में जरूर समझ पाएंगे,वहीं स्ट्रिंगरों ने दुकानदारी फैला रखी है, मुखिया साहब को प्रचार चाहिए तो 500 रुपये के एवज खबरों में जगह दे दी जाती है, इस धंधे का मीडिया घरानों को आय के अलावा सर्कुलेशन में भी फायदा होता है वहीं स्ट्रिंगर की भी चांदी हो जाती है, जो मनमाना तरीके से वसूली करते हैं, इसके अलावा पैसे लेकर आजकल राशिफल लोगों को खूब खिलाया जाता है, स्वामी और संतों ने भी इस विधि को खूब अपनाया,बाकी राजनेता भी इस मामले में मीडिया को फायदा पहुंचाकर इंटरव्यू खूब करवाते हैं,फिल्में रिलीज होने के वक्त नवसिखिया एक्टर भी चैनल वालों को सुपर स्टार दिखता है,ऐसे सुपरस्टार हर एक शुक्रवार से पहले बालीवुड में मीडिया पैदा कर देती है, कलाकारों की हर एक बाइट हेडलाइन में जगह पाती है, यहां पर खेल सिर्फ स्पानसर्शिप का है, आप भी अगर इस लायक हैं तो आपके लिए भी स्लाट तैयार है, इस मामले में मीडिया बेहद डेमोक्रेटिक है,जनता इस बात को अभी तक नहीं जान पाई अलबत्ता इस तरह की हरकतों और खबरों को बहुत जल्दी भुला भी देती है,यहीं से खबरों की विश्वसनियता पर सवाल उठना शुरू हो जाता है,
मीडिया जगत आज के दिन खुद को बाइज्जत रखने के लिए जूझ रही है,कलम और आवाज में वहीं धार कायम है जो सदियों पहले थी,लोगों का टेस्ट बदल चुका है खबरों के प्रति नजरिया बदल गए हैं, लिहाजा आज कोई गरीबी भूखमरी और बेचारगी की बात नहीं सुनना चाहता है, लोगों को फिल्मी अदाकारों के लटके झटके और धोनी के चौक्के छक्के ज्यादा पसंद है,मीडिया को आपके टेस्ट का अंदाजा है लेकिन आपको अपने टेस्ट का अंदाजा नहीं, अगर ग्राहक जाग जाए तो मीडिया भी आपके हिसाब से काम करेगी, इसलिए कहते हैं कि ’जागो ग्राहक जागो’
अगर आपका किसी जानकार से पाला पड़ जाए...तो वो आपको इतिहास याद दिलाना नहीं भूलेंगे, और कहेंगे भारतेंदू हरिशचंद्र, मदन मोहन मालवीय, गोपाल कृष्ण गोखले, बहादुर शाह जफर, सर सैयद अहमद का वक्त गया,जब इन लोगों ने कलम के बल पर एक गुलाम देश को आजादी की और अग्रसर किया गया था....तब मीडिया लोगों की बात करती थी और आज सरकार की भाषा बोलती है, पूंजीपतियों के इशारे पर नाचती है मीडिया।
दरअसल ये सिविल सोसायटी और सामाजिक संस्थानों को चलाने वालों का दर्द और मन की भड़ास है, जो हमेशा किसी को कोसने के अलावा दूसरा कोई काम नहीं करते हैं...
हां, ये सच है कि मीडिया आज के दिन बदलाव के दौर गुजर रही है, अपनी कारगुजारियों के चलते निशाने पर है मीडिया, गलत नीतियों को लेकर मीडिया की सड़क से लेकर संसद तक चर्चा होती है... हकीकत ये है कि मीडिया कमर्शियल होने के बावजूद हर किसी की जिंदगी से जुड़ा है...आपकी रोजमर्रा की जिंदगी में मीडिया का दखल है, आपका हर कदम मीडिया के इशारे पर आगे बढ़ता है.. आपकी पसंद और नापंसद मीडिया के कहने पर बदलती है...मीडिया कभी आपको मायूस करती है तो कभी किसी को न्याय दिलाने में मददगार भी साबित होती है...अंधविश्वास को दूर भगा रहा है मीडिया, लोगों में अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने की हिम्मत देता है मीडिया... मानवाधिकारों की रक्ष करता है मीडिया,,, इस नजरिये से देखें तो मीडिया हमें हर मायने में प्रभावित करता है, यही वजह है कि मीडिया से उम्मीदें ज्यादा है...मीडिया को और अधिक प्रभावशाली बनाने के बारे में लोग सोचते हैं, जो कि अच्छी बात है... लेकिन मीडिया के सामने क्या क्या चुनौतियां हैं? बहुत कम लोगों को इसका अहसास है, बिना जाने आलोचना करना हमारी फितरत का एक हिस्सा है, इसलिए हम गाहे बगाहे मीडिया पर जुबानी तीर चलाते रहते हैं,
मानवीय और सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को मीडिया हमेशा प्रमुखता देती है..इन मुद्दो को मीडिया समय और जरूरत के हिसाब से आगे लाती है...एजेंडा सेट करती है और सरकार को नीतियां बनाने पर मजबूर करती हैं...इस तरह की खबरों का असर तीव्र होता है,इससे लोगों में विश्वास बढ़ाने में मदद मिलती है...आम आदमी को इंसाफ मिलता है...खबर का असर होने पर हौसला और आत्मविश्वास बढ़ता है...इस तरह की खबरों को नजर अंदाज करने की तोहमत लगाना बेबुनियाद है... अगर ऐसा होता तो देश के मानचित्र पर मराठवाड़ा, विदर्भ, बस्तर, कालाहांडी कैसे छा जाता?आज महंगाई देश में सबसे बड़ा मुददा बन गया है...महंगाई पर मीडिया की पैनी नजर है, सूचना अधिकार में जान डालना मीडिया की मेहरबानी है...नरेगा को जन-जन तक पहुंचाने और भ्रष्टाचार को सामने लाने में मीडिया की भूमिका अहम रही है..न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को सामने लाने के पीछे मीडिया है...बीएमडब्ल्यू कांड,जेसिका लाल हत्याकांड,उपहार कांड,इंजीनियर दुबे हत्याकांड, रूचिका केस, गुजरात दंगा केस, रक्षा घोटाला, पंडितों की पोल खोल, किसानों की आत्महत्या जैसी हजारों केस हैं जिसमें मीडिया ने अकेले ही अहम भूमिका अदा की है... अब मीडिया का फोकस आनर किलिंग और नक्सली हिंसा पर है... जरूर सरकार को सख्त कठम उठाने पर मजबूर करेगी... अब और इससे ज्यादा आप क्या उम्मीद कर सकते हैं?बाकी क्षे़त्रीय स्तर पर मीडिया बेहतर काम कर रही है, दीगर है कि हम उन्हें तवज्जौ नहीं देते है,
नेशनल मीडिया, रीजनल मीडिया के काम करने का अंदाज और सरोकार अलग अलग हैं, जिन खबरों और मुद्दों को लोकल मीडिया तरजीह देती है जरूरी नहीं कि नेशनल मीडिया भी उसे तरजीह दे, लेकिन खबरें क्षेत्र से ही आती हैं व्यापकता के आधार पर अहमियत दी जा सकती है इसलिए इस खाई को समझना होगा, बिजली की किल्लत, पानी की समस्या, मांगो को लेकर लोगों का प्रदर्शन, पुलिस की मनमानी और नाकामी चोरों का आतंक, राज्य सरकार के फैसले लोकल मीडिया की खबरें होती हैं,इससे जो छन कर आता है उन खबरों को नेशनल मीडिया प्रमुखता देती है,वहीं नक्सली गतिविधियों से जुड़ी खबरें हमेशा हर एक जगह सुर्खियां बटोरती है,जबकि आतंकवादी गतिविधियों की खबरें ज्यादातर नेशनल मीडिया को ही रास आती है,क्षेत्रीय स्तर पर प्रकाशित और प्रसारित खबरों का जबरदस्त असर होता है,प्रखंड स्तर से लेकर जिला स्तर और फिर राज्य स्तर तक खबरों पर कार्रवाई होती है,इसलिए इन खबरों को दूर तक ले जाने की जरूरत नहीं है,यही नीति कुछ सामाजिक कार्यकर्ताआं को रास नहीं आती है,जो सिर्फ बडे़ बड़े शहरों में बैठकर बातों की जुगाली करते है, दरअसल ऐसे लोगों को पता भी नहीं होता कि लोकल मीडिया क्या करती है, क्या दिखाती है,सच तो यह भी है कि इन्हें यह भी नहीं मालूम कि लोकल मीडिया भी देश में सक्रिय है और बेहद प्रभावशाली है,मीडिया की आलोचना करने के पीछे इसकी सिर्फ यही मंशा होती है कि लोग उनके कार्यों को देखे और इसके एवज में ज्यादा से ज्यादा फंडिंग हो,मीडिया को अपना रस्ता मालूम है समाज को बहका कर अपनी उल्लू सीधा करने वालों के कहने पर मीडिया काम नहीं कर सकती है....
यहां पर बताते चलें कि मीडिया हाउसों में लगी एक एक कुर्सियां हजारों रुपये की होती हैं, एक- एक सिस्टम की कीमत लाखों में होती हैं, बाकी रोजाने का बिजली बिल हजारों में होती है, हर एक स्टोरी के लिए हजारों रुपये का निवेश होता है, बांकी स्टाफ की सैलरी वगैरह भी कम नहीं होती है, ऐसे में कोई संस्था अपनी पूंजी को दांव पर लगाकर मानव सेवा भला कैसे करे? संस्था की वजूद को कायम रखने के लिए मध्यमार्ग तो अपनाना ही होगा,रोजी रोटी के लिए व्यवसायिक मजबूरियों को नजर अंदाज तो नहीं किया जा सकता है?इसलिए इस मसले पर व्यवसायीकरण का ठप्पा लगाकर कुछ कहना या आलोचना करना बेकार है...
आप हम में से बहुत लोगों को शिकायत रहती है कि मीडिया मन की बातें नहीं करती है,हकीकत है कि मीडिया सबके मन की बातें करती है, सबकी खबर लेती है, आपको जगाती है, सूचना देती है और प्रशिक्षित भी करती है, कभी-कभी हंसाती और गुदगुदाती भी है, लेकिन दुख की बात है कि मीडिया जहां आपके मन की बातें करती है वहां तक आप अपनी निगाह को दौराने में कतराते हैं,जानकर ताज्जुब होगा कि देश में संपादकीय टिप्पणी सिर्फ दो फीसदी लोग पढ़ते हैं,संपादकीय खबरों की खीर और अखबारों की जान होती है, ऐसे में बिना पढे़ मीडिया पर असंवेदनशील होने का आरोप मढ़ देना शायद जायज नहीं है, येलो जर्नलिज्म के लिए मशहूर है इंडियन एक्सप्रेस, दि हिन्दू, तहलका और आउटलूक पत्रिका, कितने लोग पढ़ते हैं, बाकी न्यूज चैनलों में एनडीटीवी, सीएनएन आईबीएन, न्यूज एक्स...क्या टीआरपी है इन चैनलों की?वहीं आजतक,समय और आईबीएन7, स्टार न्यूज सबसे ज्यादा मानवीय सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर खबरें दिखाती है,कितने लोग मनोरंजक कार्यक्रमों के अलावा खबरों पर आधारित प्रोग्राम देखते हैं, इस मसले पर आपने कभी सोचा है, मेहनत के मुताबिक अगर काम आम लोगों तक ना पहुंचे,खर्च के हिसाब से रिर्टन ना मिले तो संस्थान को तो अपनी नीति पर विचार करनी ही चाहिए...वैसे भी स्टार प्लस,कलर्स,इमेजिन जैसे मनोरंजन चैनल आजकल सामाजिक कुरूतियों पर आधारित सीरियल बना रही है जिसे लोग खूब पसंद कर रहे हैं...
आज क्या दशकों से लोग कहते हैं कि देश को वैकल्पिक मीडिया की जरूरत है,ताकि आम लोगों की समस्याओं आगे लाया जा सके, मानवीय सरोकारों से जुड़े मुददों पर राय कायम की जा सके... और लोगों को इंसाफ मिलने में आसानी हो... आज इस तरह की मीडियम की कमी नहीं है, एक ढूढेंगे तो हजार मिलेंगे...लेकिन आइडिया की किल्लत है और पढ़ने सुनने देखने वालों की कमी अवश्य है.. फेसबुक, आर्कुट, ट्विटर, मोबाइल पर मैसेज, ब्लाग, सामुदायिक रेडिया- अखबार, बैनर- पोस्टर- पम्पलेट, एफएम रेडियो इसकी मिसाल हैं,हम में से बहुत कम लोग टेक्नोलोजी का इस्तेमाल इस मायने में करते हैं, अगर करें तो इससे बढ़िया प्लेटफार्म शायद ही कोई दूसरा हो, इस मामले में जंगल में रह रहे विद्रोही गुट आगे हैं, जो पोस्टर और बैनर के सहारे ही दुनिया में दहशत कायम कर रहे हैं और अपनी बातों को दूसरों तक पहुंचा रहे हैं,वहीं खिलाड़ी और कलाकार भी सोशल नेटवर्किंग के सहारे प्रशंसकों तक मन की बात पहुंचा रहे हैं...
मीडिया की बाजीगरी आज के दिन चर्म पर है,कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वाकई ध्यान देने की जरूरत है,आज के दिन कमिश्नरी स्तर पर अखबारों का प्रकाशन हो रहा है जिला स्तर पर कैबल न्यूज चल रहे हैं, इन माध्यमों में लोग अपनी खबरों को पाकर शुरूआती दिनों में बेहद खुश होते हैं, जिसे मीडिया जगत बखूबी कैश करती है, इस प्रवृति से नुकसान यही होता है कि खबरें एक सीमित दायरे में सिमट कर रही जाती है, जिसे आगे जाना होता है उसकी आत्मा वहीं पर मार दी जाती है, लोग इस भाव को आने वाले दिनों में जरूर समझ पाएंगे,वहीं स्ट्रिंगरों ने दुकानदारी फैला रखी है, मुखिया साहब को प्रचार चाहिए तो 500 रुपये के एवज खबरों में जगह दे दी जाती है, इस धंधे का मीडिया घरानों को आय के अलावा सर्कुलेशन में भी फायदा होता है वहीं स्ट्रिंगर की भी चांदी हो जाती है, जो मनमाना तरीके से वसूली करते हैं, इसके अलावा पैसे लेकर आजकल राशिफल लोगों को खूब खिलाया जाता है, स्वामी और संतों ने भी इस विधि को खूब अपनाया,बाकी राजनेता भी इस मामले में मीडिया को फायदा पहुंचाकर इंटरव्यू खूब करवाते हैं,फिल्में रिलीज होने के वक्त नवसिखिया एक्टर भी चैनल वालों को सुपर स्टार दिखता है,ऐसे सुपरस्टार हर एक शुक्रवार से पहले बालीवुड में मीडिया पैदा कर देती है, कलाकारों की हर एक बाइट हेडलाइन में जगह पाती है, यहां पर खेल सिर्फ स्पानसर्शिप का है, आप भी अगर इस लायक हैं तो आपके लिए भी स्लाट तैयार है, इस मामले में मीडिया बेहद डेमोक्रेटिक है,जनता इस बात को अभी तक नहीं जान पाई अलबत्ता इस तरह की हरकतों और खबरों को बहुत जल्दी भुला भी देती है,यहीं से खबरों की विश्वसनियता पर सवाल उठना शुरू हो जाता है,
मीडिया जगत आज के दिन खुद को बाइज्जत रखने के लिए जूझ रही है,कलम और आवाज में वहीं धार कायम है जो सदियों पहले थी,लोगों का टेस्ट बदल चुका है खबरों के प्रति नजरिया बदल गए हैं, लिहाजा आज कोई गरीबी भूखमरी और बेचारगी की बात नहीं सुनना चाहता है, लोगों को फिल्मी अदाकारों के लटके झटके और धोनी के चौक्के छक्के ज्यादा पसंद है,मीडिया को आपके टेस्ट का अंदाजा है लेकिन आपको अपने टेस्ट का अंदाजा नहीं, अगर ग्राहक जाग जाए तो मीडिया भी आपके हिसाब से काम करेगी, इसलिए कहते हैं कि ’जागो ग्राहक जागो’
3 टिप्पणियां:
मीडिया को आपके टेस्ट का अंदाजा है लेकिन आपको अपने टेस्ट का अंदाजा नहीं, अगर ग्राहक जाग जाए तो मीडिया भी आपके हिसाब से काम करेगी, इसलिए कहते हैं कि ’जागो ग्राहक जागो’
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Hasan Jawed bhai,
bahut acha likha hai aapne, aur yeh waqai haqiqat hai ki jahan media, particularly electronic us mein bhi TV, raatii ka pahaad (mountain) bana deti hai wahin yeh agenda setting ka bhi kaam bakhoobi anjaam deti hai...
doosri taraf yeh bhi haqeeqat hai ki agar media chahe to aahiste aahiste viewers ke taste ko change kar sakti hai lekin aise situation mein media ke survival ki baat aajaegi.
aapne sahi farmaya ki media mein bahut saare staff members - on the camera aur offe the camera kaam karte hai, unki rozi roti ka bhi to masa'la hai..
waise aapka blog bahut acha hai..
padhkar acha laga..
continue it.
shamim
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