किसी के मुंह से निवाला छीनना सबसे बड़ा पाप है.... और ये पाप हो रहा है अपने देश में.... इस सबसे बड़े पाप में किसी एक शख्स की भागीदारी नहीं है... कोई एक व्यक्ति अकेले इस पाप के लिए जिम्मेदार नहीं है....बल्कि पूरा का पूरा सिस्टम इस पाप में बराबर का हिस्सेदार है।
सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के मुताबिक जिस व्यक्ति के पास जनवितरण प्रणाली के लिए राशन कार्ड है...उस व्यक्ति को चार रूपए 96 पैसे प्रति किलोग्राम की दर से पैंतीस किलोग्राम अनाज हर महीने मिलना चाहिए... लेकिन शायद ही साल के बारह महीने किसी भी राशनकार्ड धारी को इस दर पर इतना अनाज मिलता हो... एक सर्वे के मुताबिक बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम और मध्यप्रदेश में जनवितरण प्रणाली की हालत बदतर स्थिति में है।
हर महीने राशन कार्ड धारियों के लिए 4.20 मिलयन टन चावल और गेहूं का आवंटन होता है..... जनवितरण प्रणाली के जरिये गरीबों को बांटने के लिए आने वाला ये अनाज राशनकार्ड धारियों को न केवल अधिक कीमत चुकाने के बाद मिलती है, बल्कि ज्यादा पैसे देने के बाद भी उन्हें इतना अनाज नहीं मिलता जिससे पूरे महीने तक उनके घर चुल्हा जल सके।
दिलचस्प बात ये है कि गली मोहल्ले में जनवितरण प्रणाली के जो डिलर है.... उनमें से ज्यादातर डीलर अपनी खुद की या रिश्तेदार के जरिये राशन दुकान चलाते हैं....औऱ जो सरकारी अनाज आता है... धड़ल्ले से उसकी ब्लेक मार्केटिंग करते हैं.... प्रखंड विकास पदाधिकारी या फिर ब्लॉक लेवल के वैसे अधिकारी जिनपर ये जिम्मेदारी है कि वो राशन डीलरों पर नजर रखे... लापरवाही बरतते हैं या फिर उनमें से ज्यादातर भ्रष्ट है।
प्रखंड स्तर से शुरू हुआ लापरवाही और भ्रष्टाचार के इस खेल का सिलसिला डिस्ट्रिक लेवल और स्टेट लेवल तक जारी है.... ऐसे में देश के सबसे पुरानी जनवितरण प्रणाली की सफलता की बात करना बेमानी हो जाती है....।
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