22 सितंबर 2010
बाहुबली मजबूरी या कुछ और.....
चुनाव आते ही जिस तरह राजनेता सक्रिय हो जाते हैं उससे कहीं ज्यादा बाहुबली सक्रिय हो जाते हैं। क्यांेकि ये दोनों एक-दूसरे के मार्फत अपनी नैया पार कराने में सफल होते है। विधानसभा चुनाव में प्रमुख राजनीतिक दल बाहुबलियों को टिकट देना चाह रहे है। क्या ये सभी प्रमुख राजनीतिक दलों की मजबूरी या कुछ और। हालांकि बाहुबलियों का राजनीति से पुराना संबध रहा है। बाहुबलियों का टिकट देने में राजनीतिक दलों को परहेज नहीं है। लेकिन ये भी तय है कि सत्ता पर काबिज होने के लिए राजनीतिक दल इनका फायदा उठाते है। अब जबकि 15 वर्ष के लालू के जंगलराज से लोगों को मुक्ति मिली और नीतीश ने सुशासन का पाठ पढ़ाया। तो राजनीतिक दलों को ये सोचने पर मजबूर कर दिया हैैं कि बाहुबलियों को टिकट दिया जाए या नहीं। पार्टी में इस मुद्दे पर दो गुट बन गए है। लेकिन इन तमाम चीजों को दरकिनार कर लालू यादव,सीएम नीतीश कुमार और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर भी बाहुबलियों से जेल में जाकर मिलने से नहीं चूके। आखिर क्यों क्या साफ सुथरी छवि वाले राजनेताओं की बिहार में कमी है। जो इन बाहुबलियों का सहारा लिया जाए। दरअसल चुनाव के वक्त ये सभी राजनीतिक दल इन बाहुबलियों का सहारा लेते हैं और सत्ता पर काबिज होते है। इन बाहुबलियों का अपना वोट बैंक है ये जिस इलाके से आते हैं वहां इनका अपना वर्चस्व होता है। चाहे वह जाति से जुड़ा हो या फिर धमकाकर वोटों को अपने पाले में करने का मामला हौं। ये सभी चीजें इन राजनीतिक दलों को बाहुबलियांे को टिकट देने पर मजबूर कर देती है। जब ये बाहुबली चुनाव जीत कर आ जाते हैं फिर इनके खिलाफ दर्ज मामले को भी दबाने की कोशिश की जाती हैं। यही कारण है कि पं्रमुख राजनीतिक पार्टियां इन बाहुबलियों को टिकट देती है। लेकिन बाहुबलियों के जीतने से जनता का सिर्फ नुकसान ही होता है। क्योंकि इन बाहुबलियांे को विकास के मायने पता नहीं होते बल्कि इनके रूतबे में और चार चांद लग जाता है। इतना हीं नहीं कई बार ये मंत्री पद को भी सुशोभित करते है। जिस राज्य में बाहुबली नेता मंत्री हो जाए उस राज्य का कितना विकास होगा ये आप सब भली भांति समझ सकते है।
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